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02/10/2025 2:43 pm

सैय्यारा (Netflix) रिव्यू: प्रेम, पागलपन और यथार्थ की टकराहट

नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म सैय्यारा ने युवाओं के बीच खूब चर्चा बटोरी है। यह फिल्म न सिर्फ एक प्रेम कहानी को बयान करती है बल्कि यह भी दिखाती है कि आज के दौर में प्यार किस तरह बदल गया है। कई दर्शकों ने इसे दिल छू लेने वाली फिल्म कहा है, तो कई ने इसकी कमजोरियों की ओर इशारा किया है। सैय्यारा देखने के बाद यही एहसास होता है कि सिनेमा अक्सर वही दिखाता है जो हम वास्तविकता में खो चुके हैं।

फिल्म की लोकप्रियता का रहस्य

सैय्यारा की लोकप्रियता का बड़ा कारण सिर्फ इसकी कहानी नहीं बल्कि उससे जुड़ा हुआ मार्केटिंग गिमिक भी है। जब फिल्म रिलीज़ हुई थी, तब युवाओं के बीच इसका एक दृश्य वायरल हो गया जिसमें भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। थिएटर में रोते हुए दर्शकों के वीडियो शेयर किए गए और सोशल मीडिया ने इस भावुकता को फिल्म के प्रचार में बदल दिया। यह एक चतुराई भरी रणनीति थी जिसने फिल्म को हिट बनाने में अहम भूमिका निभाई।

लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई आज के युवाओं के जीवन में ऐसा निष्कपट प्रेम बचा है, जैसा फिल्म में दिखाया गया है?

प्रेम का बदलता स्वरूप

आज के समय में प्रेम केवल भावनाओं का नाम नहीं रह गया है। रिश्तों में स्वार्थ और व्यावहारिकता की झलक बढ़ गई है। अक्सर लड़कियों पर “गोल्ड डिगर” होने का आरोप लगाया जाता है और लड़कों पर “दहेज लोभी” होने का। कई बार प्रेम का अंत पैसे और सुविधाओं पर आकर ठहर जाता है।

यथार्थ यह है कि हम बीमार या संघर्षरत साथी को चुनने से हिचकिचाते हैं। हम स्थिर और सुरक्षित जीवन चाहते हैं और इसके लिए दिमाग की सुनते हैं, न कि दिल की। दिमाग हमेशा व्यावहारिक होता है जबकि दिल अक्सर भावुक। यही वजह है कि सैय्यारा जैसी कहानियाँ किताबों और फिल्मों में तो खूब पसंद की जाती हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में विरले ही मिलती हैं।

अभिनय और प्रस्तुति

फिल्म के कलाकारों की बात करें तो सहायक कलाकार (हीरो के दोस्त) कुछ हद तक बेपरवाह और बिना किसी जिम्मेदारी के लगते हैं। लीड जोड़ी की एक्टिंग पर भी कई दर्शकों ने सवाल उठाए हैं। नायिका की अदाकारी अपेक्षाकृत संतुलित रही, लेकिन नायक का प्रदर्शन बार-बार एक जैसे एक्सप्रेशन्स और ओवरड्रामेटिक बॉडी लैंग्वेज में सिमट गया। उसकी आवाज़ और अंदाज़ में मानो कबीर सिंह के गुस्से की नकल दिखाई दी। लगातार चीखना-चिल्लाना और कंधे उचकाना अभिनय की कमजोरी को उजागर करता है।

इसके बावजूद फिल्म के भावनात्मक दृश्यों ने दर्शकों को बांधे रखा और यही इसकी सबसे बड़ी ताकत रही।

अल्जाइमर और फिल्मी प्रस्तुति

फिल्म में अल्जाइमर की बीमारी को भी कहानी का हिस्सा बनाया गया है। इसमें मेमोरी ओवरलैप जैसा तत्व दिखाया गया है, जो दर्शकों को भावुक करता है। हालांकि चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से यह पूरी तरह सटीक नहीं है। इस विषय पर पहले भी कई गंभीर फिल्में बन चुकी हैं, जैसे अजय देवगन और काजोल की एक फिल्म जिसमें इस बीमारी को गहराई से दिखाया गया था। सैय्यारा ने इसे अधिक नाटकीय अंदाज़ में पेश किया है, जिससे दर्शकों पर भावनात्मक असर तो पड़ता है लेकिन यथार्थ का चित्रण कहीं-कहीं कमजोर पड़ जाता है।

दर्शकों की पसंद और व्यावहारिक जीवन

सैय्यारा जैसी फिल्में युवाओं के दिलों को छू लेती हैं क्योंकि वे आज की जटिल दुनिया में ऐसे निश्छल प्रेम को मिस करते हैं। लेकिन जब यही युवा अपने वास्तविक जीवन में रिश्तों का सामना करते हैं, तो उनकी प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। वे दिल से ज्यादा दिमाग की सुनते हैं और व्यावहारिक सोच हावी हो जाती है।

यह फिल्म इसलिए भी पसंद की गई क्योंकि इसमें दर्शकों ने वही सपना देखा जो असल जीवन में शायद ही पूरा हो पाता है। भावनाओं का यह विस्फोट सिनेमा के पर्दे पर तो अच्छा लगता है, लेकिन हकीकत में रिश्तों की डोर अक्सर आर्थिक और सामाजिक मजबूरियों से बंधी होती है।

सैय्यारा का महत्व और निष्कर्ष

कमियों के बावजूद सैय्यारा एक देखने योग्य फिल्म है। इसमें प्रेम का जुनून, त्याग और दर्द सब कुछ है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों हमारे रिश्ते अब पहले की तरह निष्कपट नहीं रहे। यह फिल्म दर्शाती है कि प्रेम की असली परिभाषा त्याग और धैर्य में है, लेकिन वास्तविक जीवन में लोग अक्सर इसे निभा नहीं पाते।

सैय्यारा का संदेश यही है कि भले ही प्रेम अब व्यावहारिक हो गया हो, लेकिन अगर कोई रिश्ता दिल से निभाया जाए तो वह आज भी उतना ही सुंदर हो सकता है जितना हमने फिल्मों और कहानियों में देखा है।

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