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16/12/2025 12:05 am

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पति–पत्नी के रिश्ते की सच्चाई समझाती एक मार्मिक कहानी

पति से अलग होने की जिद लिये जब महिला मजिस्ट्रेट के सामने पहुँची तो माहौल एकदम भारी हो गया। पति सहमा-सहमा-सा खड़ा था और पत्नी अपनी जिद पर अड़ी हुई। दोनों तरफ़ के वकील अपनी-अपनी दलीलों में लगे थे और मजिस्ट्रेट महोदया इस मामले की गहराई समझने की कोशिश कर रही थीं। बहस इतनी लंबी चली कि उन्हें सिरदर्द की गोली लेनी पड़ी।

गोली निगलने के बाद उन्होंने अपना फैसला टेबल पर रख दिया। सबकी नज़रें उसी पर टिक गईं। लेकिन फैसला पढ़ने से पहले उन्होंने महिला से पूछा—
“क्या तुम्हें कुछ दिन की मोहलत चाहिए? शायद तुम अपने फैसले पर दोबारा विचार करना चाहो।”

महिला ने अपने वकील की ओर देखा और फिर सिर हिला दिया— “नहीं।”

मजिस्ट्रेट खुद भी एक महिला थीं। वे समझ सकती थीं कि पति–पत्नी के बीच विवाद मन की गहरी खरोंचों का परिणाम होता है। इसलिए उन्होंने अंतिम निर्णय सुनाया—
“तुम्हें छह महीने का समय दिया जाता है। चाहे पति के साथ रहो या मायके, पर छह महीने बाद ही अगली सुनवाई होगी।”

यह सुनते ही कोर्ट में सन्नाटा छा गया। वकील बहस करते रहे लेकिन निर्णय वही रहा। शायद इसलिए कि औरत का दर्द, औरत ही बेहतर समझ सकती है।

मायके में स्वागत—पर धीरे-धीरे बढ़ती दूरी

शुरुआत में महिला का मायके में बहुत स्वागत हुआ। घूमना-फिरना, रिश्तेदारों से मिलना, मौज-मस्ती… सब कुछ ठीक चल रहा था।
लेकिन कुछ महीनों बाद बातें बदलने लगीं।

मां ने धीरे से पूछना शुरू किया—
“बेटी, अगली तारीख में क्या बोलोगी? एक बार दामादजी से बात करो।”

भाई-भाभी धीमे स्वर में बातें करने लगे। भतीजे-भतीजी तक कहने लगे—
“बुआ कब जाएँगी? हमारा कमरा घेरा है।”

पिता कुछ बोलते नहीं थे, लेकिन उनकी आँखों में चिंता साफ झलकती थी।
औरत धीरे-धीरे समझने लगी कि शादी के बाद मायके में ज़्यादा दिन रहना किसी को अच्छा नहीं लगता।

पड़ोस की महिलाएँ घूरने लगीं। रिश्तेदार ताने मारने लगे—
“तुम्हीं में कोई कमी रही होगी… तभी पति से अलग होना पड़ा।”

वही महिला जो कभी घर में अपने हक की आवाज उठाती थी, अब चुप होकर ताने सहने लगी। मायके की चुप्पी और समाज की बातें उसके मन को अंदर तक तोड़ने लगीं।

तीन महीने में सच समझ आ गया—इज़्ज़त कहाँ है?

धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि शादी के बाद एक औरत की असली इज़्ज़त उसके पति के घर में होती है।
उसे समझ आया कि—
“पति ही है जो हर गलती को माफ कर सकता है, जो हर परिस्थिति में साथ दे सकता है।”

अब वह मायके में बोझ बन गई थी—
और यह सच किसी चट्टान की तरह उसके दिल पर आकर बैठ गया।

आख़िरकार मायके वालों ने राहत की साँस लेते हुए दामाद जी को फोन किया—
“बिटिया को अपनी गलती का एहसास हो गया है। आकर ले जाइए।”

पहले तो पति हिचकिचाया—
“अभी केवल तीन महीने हुए हैं… अगर फिर झगड़ा हुआ तो?”

लेकिन पत्नी ने खुद फोन उठाया और कहा—
“मुझे माफ़ कर दीजिए। मैंने समझ लिया कि घर-परिवार का सुख आपसे अलग होकर नहीं मिल सकता।”

पति की आवाज़ पिघल गई…
और कुछ ही दिनों में वह उसे लेने आ गया।

मजिस्ट्रेट का निर्णय—एक टूटते घर को बचा गया

छह महीने की बजाय सिर्फ तीन महीनों में ही दोनों को समझ आ गया कि रिश्ते लड़कर नहीं, समझकर निभाए जाते हैं।
और मजिस्ट्रेट महोदया का वह फ़ैसला—
जो बाहर से सख्त दिखता था—
असल में उनके रिश्ते की सबसे बड़ी रक्षा बन गया।

पति-पत्नी फिर साथ हो गए।
और अब उनकी जिंदगी पहले से अधिक समझ और प्रेम से भर गई।

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