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02/10/2025 6:34 pm

बरसात, यादें और जीवन दर्शन

बरसात की बूँदें केवल मौसम का परिवर्तन नहीं लातीं, बल्कि वे स्मृतियों की झंकार भी जगाती हैं। हर बूँद मानो हमारे भीतर दबे हुए भावों को सींच देती है। सावन की हरियाली, विरह का दर्द, जीवन का संघर्ष और धरती का धैर्य—सब कुछ इस बरसात में छिपा हुआ है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में बरसात को केवल ऋतु नहीं, बल्कि जीवन दर्शन का प्रतीक माना गया है।

यादें और बरसात का संगम

बरसात की बूँदें जैसे ही धरती पर गिरती हैं, मन में पुरानी यादें भी हिलोरें लेने लगती हैं। यह स्मृति की वह नमी है जो जीवन के सूखेपन को हर बार तर कर देती है। कुछ यादें ताजगी देती हैं, कुछ बेचैनी पैदा करती हैं, लेकिन दोनों ही जीवन को गहराई से महसूस कराती हैं। विरह की रातों में बरसात की बूँदें आँसुओं जैसी लगती हैं, जबकि मिलन की बेला में यही बूँदें अमृत की तरह सुकून देती हैं। यही दोहरा स्वभाव जीवन का सत्य है।

आकाश और धरती का द्वंद्व

धरती और आकाश का रिश्ता बड़ा गहरा है, पर दोनों का स्वभाव अलग-अलग है। आकाश वैभवशाली है, पर उसमें अपनापन नहीं है। वह निर्लिप्त और दूर रहता है। बादल आते हैं, बरसते हैं और फिर चले जाते हैं। पर धरती हर बार उन्हें अपने धैर्य और सहनशीलता से स्वीकार करती है। धरती का यही धैर्य उसे तपस्विनी बनाता है। वह हरियाली लुटाती है, अन्न उपजाती है, जीवन देती है और बदले में कुछ नहीं माँगती। यही त्याग और तितिक्षा हमें जीवन जीने की सबसे बड़ी सीख देते हैं।

स्मृति का भार और जीवन की व्यस्तता

आज की दुनिया में लोग व्यस्तताओं के भँवर में फँस गए हैं। किसी के पास ठहरकर याद करने का समय नहीं। लेकिन यादें समय की शिला पर खुदी रहती हैं। वे मिटती नहीं, उनका प्रकाश कभी मंद नहीं होता। जब हम अकेले होते हैं, निराशा या पीड़ा से घिरे होते हैं, तब यही स्मृतियाँ हमें सहारा देती हैं। यही कारण है कि स्मृति केवल भावुकता नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और आत्मिक शांति का आधार भी है।

पपीहा और विरह का संगीत

सावन का सबसे अद्भुत दृश्य है पपीहा का स्वर—”पी कहाँ, पी कहाँ”। उसकी यह पुकार केवल पानी की प्यास नहीं, बल्कि विरह की रागिनी भी है। यह हमें यह समझाती है कि जीवन में तड़प और प्यास भी जरूरी है। यही अधूरापन हमें खोज करने, आगे बढ़ने और परम करुणा-निधान की ओर जाने की प्रेरणा देता है।

धरती की तपस्विनी छवि

धरती केवल हमारी माँ ही नहीं, सबसे बड़ी साध्वी और तपस्विनी भी है। वह हर बार सहन करती है, हर बार देती है, पर कभी बदले में कुछ नहीं माँगती। जब बाढ़ आती है तो सब कुछ बहा देती है, जब सूखा पड़ता है तो चुपचाप सह लेती है। यही धरती का धर्म है—सहन करना, क्षमा करना और जीवन को फिर से खड़ा कर देना।

जीवन का विरोधाभास

बरसात केवल श्रृंगार नहीं, वह मृत्यु का गीत भी है। सावन की हरियाली जीवन की ताजगी है, तो भादों की अँधियारी मृत्यु का संकेत। यह विरोधाभास ही जीवन को रहस्यमय बनाता है। श्रृंगार की बारात हो या मृत्युभोज की बारात—दोनों में गाजे-बाजे बजते हैं। यही जीवन और मृत्यु की अनिवार्य समानता है। जो जन्मा है, वह मरेगा, और जो मिटेगा, वह किसी नए रूप में जन्म लेगा।

करुणा-निधान की ओर पुकार

आखिरकार हर प्यास, हर स्मृति और हर संघर्ष एक ही दिशा में जाता है—परम करुणा-निधान की ओर। पपीहा हो या इंसान, धरती हो या आकाश—सबकी पुकार अंततः ईश्वर की करुणा में शरण लेती है। तभी अनायास मन गुनगुनाता है—”दीन दयाल बिरदु संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी।” यह भक्ति और विश्वास ही जीवन की अंतिम शरण है, जहाँ सारी व्यथाएँ मिट जाती हैं और केवल शांति शेष रहती है।

बरसात का सुख

बरसात हमें केवल मौसम का सुख नहीं देती, बल्कि जीवन के रहस्यों को समझने का अवसर भी देती है।
धरती का धैर्य हमें सहनशीलता सिखाता है, आकाश का वैभव हमें क्षणभंगुरता की याद दिलाता है, पपीहे की पुकार हमें अधूरेपन की पीड़ा दिखाती है, और स्मृतियाँ हमें अपने मूल की ओर लौटाती हैं।
जीवन का यही दर्शन है—सुख-दुख, मिलन-विरह, श्रृंगार और मृत्यु—सब एक ही धारा में बहते हैं। और इस धारा में तैरना ही इंसान का धर्म है।

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